चायवाद
चाय में हिंदुस्तान की आत्मा बसती है । महानगर में अस्तित्व की भागदौड़ की साथी कटिंग चाय, बरामदों में शाम को फुरसत से पी जाने वाली फुरसत की प्याली, सर्दी की सुबहों में नींद से जगाने वाली ताजगी, या इष्ट मित्रों व परिवार के साथ बाँटी जाने वाली मेहमाननवाजी - चाय का स्वाद हमारी ज़िंदगी के हर कतरे में घुला हुआ है ।
चाय पे चर्चा तो बहुत सुनी है, लेकिन चाय के बारे में चर्चा कम ही सुनी है और उससे भी कम पढ़ी है । इसी कमी को पूरा करता है लव कनोई का “चायवाद” । यह पुस्तक जापानी लेखक काकुज़ो ओकाकुरा की किताब -“द बुक ऑफ टी” का हिन्दी अनुवाद है । ये किताब कई सारे निबंधों का संकलन है, जो चाय परंपरा के विभिन्न पहलुओं से हमारा परिचय कराते हैं ।
चाय की यह जीवनी उसकी उत्पत्ति, इतिहास और बनाने के अंदाज पर रोशनी डालती है । प्राचीन चीनी राजवंशों - तांग , सुंग और मिंग से चाय का क्या रिश्ता रहा है , कवियों और सौदागरों के जरिए चाय की ख्याति किस तरह मध्य एशिया की कोने कोने में फैली, चाय बनाने और पिलाने के फ़न का विकास कैसे हुआ, और राजदरबारों में चाय को क्या सम्मान दिया जाता था - इस इतिहास में ऐसे कई दिलचस्प किस्से छुपे हुए है । प्राचीन चीनी चाय शास्त्र का बखूबी बयान है । चाय परंपरा के उद्भव और उस पर ताओ , झेन और बोधिधर्म के असर के बारे में भी बात की गई है ।
झेन और ताओवाद पर एक पूरा निबंध दिया गया है, जहां इन धर्मों के मूल सिद्धांतों और चाय पीने और पिलाने के बीच में समानता दिखाई गई है। सौंदर्यवाद और उपमा से पन्ने सराबोर हैं । ताओ और झेन परंपरा से अनजान पाठकों को ये परिचय काफी पसंद आएगा । पूर्व की इन दो परंपराओं के ऐतिहासिक व सांस्कृतिक प्रभाव को थोड़े पन्नों में बड़ी कुशलता से समझाया गया है ।
चायखाने पर लिखा निबंध भारत के पाठकों को काफी नया लगेगा । सिवाय इक्का दुक्का कॉफी हाउस के , भारत में चाय घरों में ही पिया जाने वाला पेय है। हालांकि चाय की थड़ी के बारे में काफी कुछ लिखा जा सकता है, लेकिन सुदूर पूर्व के चायखानों का कोई मुकाबला ही नहीं है। भवन की बनावट हो या वास्तु और शिल्प के पीछे के राज़ - पारंपरिक चायखाने की एक एक चीज चाय पीने के अनुभव को ध्यान में रखकर बनाई जाती थी । दालान, बगीचे या कंगूरे, साज सज्जा व मूर्तियाँ - सभी में दर्शन, कवित्व व सौंदर्यवाद की झलक है ।
जैसे भारत का जनमानस पार्ले जी बिस्कुट को चाय में डुबोकर स्वीकार करता है, उसी मिठास के साथ कला रस में डुबोकर लेखक ने हमें चाय गुरुओं से मिलवाया है । आतिथ्य के महारथी इन चाय गुरुओं का जीवन के प्रति नजरिया बेजोड़ है । अतिथि के स्वागत से लेकर विदा होने तक - चायखानों के ये गुरु एक एक चीज़ का बड़ी बारीकी से खयाल रखते थे ।
फूलों पर भी लेखक ने बढ़िया विवेचना की है । फूल सज्जा का चायवाद और चायखाने में क्या स्थान है, और कैसे इसने आगे चलकर इसने इकेबाना जैसी पद्धतियों को जन्म दिया - ये जानना काफी दिलचस्प लगा । आखिरी निबंध - “गुरु” - अपने आप में परिपूर्ण है । चाय गुरु रीकयु के जीवन का प्रसंग पुस्तक के अंत में आता है । जीवन और मृत्यु के अनवरत काफिले की यह दास्तान दिल को छू जाती है ।
अक्सर अनुवाद में कुछ न कुछ छूट ही जाता है, खासकर जब अनुवाद एक सदी और एक संस्कृति के फासले पर किया जा रहा हो । लेकिन अनुवादक ने कोई कसर नहीं छोड़ी है । हिन्दी परिप्रेक्ष्य में ओकाकुरा के शब्दों को बेहतरीन ढंग से ढाला गया है । ऐसे लगता है जैसी आप ही के साथ शाम को बैठकर चाय की चुस्की के साथ चायवाद आपको सुनाया जा रहा है । पाठकों की सुविधा के लिए अंत में परिशिष्ट और संदर्भ भी दिए गए हैं ।
उम्मीद करता हूँ एक दिन भारतीय चायवाद के ऊपर भी कुछ लिखा जाएगा। । तब तक इस चायवाद की प्याली का स्वाद ज़रूर लें ।
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